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नज़राना इश्क़ का (भाग : 46)

















दोपहर बीत चुकी थी, शाम ढलने को आया था। निमय अब तक बिस्तर पर करवटे बदल बदल कर बुरी तरह तक चुका था। कई तरह के ख्यालों ने उसके दिमाग को बुरी तरह कुंद कर डाला था, उसकी हालत ठीक उसी मछली की तरह हो गयी थी जिसे पानी से निकाल दिया गया हो।

कमरे अच्छी खासी रोशनी होने के बावजूद भी उसकी आँखों के आगे अंधेरा छाया हुआ था, उसने फोन को घृणा भरी आँखों से एक नजर देखा और फिर मुँह फेर लिया। उसे बार बार अपने किये पर पछतावा हो रहा था। वो कभी दुआएं करता कि ऊपरवाला उसकी दोस्त को उससे अलग न करे तो कभी सिफारिश करता कि उसे उसकी बना दे, फिर कभी शिकायत करते रहता कि जब प्यार मिलना ही नहीं था तो फिर प्यार करवाया क्यों? वह उसके इतना पास आई ही क्यों? नहीं तो फिर उसकी हिम्मत ही नहीं हो पाती कि वो अपने दिल की बात उससे कहे। फिर कभी गुजारिश करता कि कैसे भी करके उसको (फरी को) उसका (निमय का) बना दे। पर जैसे ही उसे एहसास होता कि उसकी इस हरकत से फरी का दिल दुखा होगा, उसने उसके पुराने जख्म कुरेद दिए, वह फिर दुआएं करने लगता कि चाहे वो भले उसके नसीब में हो या नहीं, पर उसे उसकी खुशियां चाहिए, वो उसे एक पल को भी उदास नहीं देख सकता।


निमय अपने ख्यालों के झंझावात में फंसा हुआ था, उस कमरे में अब उसका दम घुटने लगा था, उसने उठने की कोशिश की तो उसे महसूस हुआ कि वह जोर नहीं लगा पा रहा, कोई भी अंग उसके अपने नियंत्रण में नहीं था। दिल का तो ऐसा लग रहा था जैसे बस अभी छाती की पसलियों को तोड़ते हुए बाहर आ जायेगा। उसकी आँखों के सामने फरी का मासूम चेहरा दिखने लगा। फिर उन आँखों में आँसू आने का डर उसे अंदर तक हिला कर रख दे रहा था।


"ये दर्द…! इतना दर्द आखिर मुझे ही क्यों? क्या मैंने इतना बड़ा गुनाह किया है? क्या इश्क़ करना सच में पाप है? पर प्रेम तो कभी पाप नहीं होता, मैं तो उसके हृदय पर ज़बरदस्ती कब्जा करने की भी कोशिश नहीं कर रहा। बस एक बार उससे मिलकर माफी मांग लूंगा.. और कोशिश करूंगा कि वो मुझे छोड़कर न जाये…!" निमय अपने आप से बुदबुदाया।

"पर क्या सच में वो इसी बात के लिए गुस्सा है…! शायद उसने कोई मैसेज किया होगा..मुझे देखना चाहिए कि उसने क्या जवाब दिया है!" यही सब सोचते हुए निमय ने अपने मोबाइल की तरफ हाथ बढ़ाया।

"नहीं नहीं निमय…! किस मुँह से तू उसका सामना कर सकेगा! बिना देखे तो ये हालत है सोच उसके बाद क्या होगा? पर मुझे एक बार तो देखना चाहिए न…! नहीं…! बिल्कुल नहीं! उसने कह दिया न कि उसे मुझसे उम्मीद नहीं थी कि मैं ऐसा करूँगा… अब क्या बाकी रह गया है..! अपने दिल को संभाल ले निमय.. जब कन्हैया ने सारी दुनिया बनाकर भी, सारी लीलाएं रचकर भी राधा को नहीं पाया तो फिर तू क्या चीज है…! पर यहां तो मैं शायद राधा के जैसा हूँ… मुझे तो हर हाल में अपने प्रेम पर समर्पित रहना होगा… वैसे भी राधा के प्रेम से अधिक उत्कृष्ट संसार में अन्य किसी ने प्रेम कहाँ किया..! जब कृष्ण साथ थे, तो भी वो कृष्ण की थी, और जब कृष्ण उन्हें छोड़ चले गए तो भी वे सिर्फ श्रीकृष्ण की रहीं.., अद्भुत अतुलनीय त्याग और प्रेम…! इस दर्द में भी एक अलग सा सुकून है, इस अंधेरे में भी कुछ उजाले सा है, इस चुभन में भी कुछ तो राहत सा है, शायद यही है नज़राना इश्क़ का..!!" निमय के मन में जैसे ही राधा कृष्ण का ख्याल आया उसे हल्की ठंडक सी महसूस हुई, उसके सीने की जलन धीरे धीरे बुझने लगी, उसने मन ही मन खुद को समझा लिया था, पर वह कितनी देर तक खुद की बातें मानता यह तो खुद उसे भी पता नहीं था।


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फरी अपने कमरे में चुपचाप सी बैठी हुई थी। अपने बाबा को साथ लाने और बड़े साहब को मुँह पर जवाब देकर उसे राहत मिली थी, पर साथ में उसके दिल ने बड़े साहब के लिए एक नरम रुख भी अपना लिया था, उसे महसूस हो रहा था कि बड़े साहब उतने भी बुरे नहीं जितना वह सोच रही थी, पर वह फिर भी एक बार उन्हें परख लेना चाहती थी। इतना सब ठीक होने के बाद भी उसके चेहरे पर उलझन के भाव साफ साफ नज़र आ रहे थे। और उसकी उलझन की वजह था निमय…!


"ऐसा कौन करता है निम? मैंने हमेशा इस चीज को चाहा… मेरे कान सुनने को तरसने लगे थे, पर आप नहीं समझोगे! अब जाकर सब ठीक होने लगा था, पर आप बस अपना कहकर भाग गए, मेरी बात कौन सुनेगा..! अब सबकुछ जानू से तो नहीं कह सकते हैं ना..!" फरी खुद ही खुद से ऐसे झगड़ने लगी थी मानो वह निमय से लड़ रही हो।

"ना जाने आप क्या सोच रहे होंगे निम! पर मैं कोई गलती नहीं करना चाहती, मैं बस पहले सबकुछ पूरी तरह से ठीक कर लेना चाहती हूँ। अब सब ठीक हो रहा है, तो आप मेरे सब्र का इम्तेहान ले रहे हैं, ये तो इंतेहा हो गयी है आपके जुल्मों की…! समझ नहीं आती क्या आपको ये बात..?" फरी का चेहरा उतर गया था। आँखों में नमी छाई हुई थी।

"माँ! तुम बताओ न मैं क्या करूँ? मुझे बाबा के अलावा कोई ये बताने वाला नहीं मिला कि सही क्या है और गलत क्या! पर आज मैंने बड़े साहब को मुँह पर सुना दिया माँ! मैं किसी से नहीं डरती, और अब मैं किसी से डरकर नहीं भागूंगी, अब मैं सबकुछ जीतकर, हासिल कर के ही दम लूंगी।" अपना ध्यान भटकाने के लिए फरी मन ही मन अपनी माँ से बातें करने लगी। पर उसका ध्यान निमय की ओर से बिल्कुल भी नहीं हट सकता, उसकी सारी कोशिशें नाकाम हो गई। उसे अब गुस्सा आने लगा था, उसका चेहरा गुस्से से लाल होने लगा था, उसने अपना फ़ोन निकाला और निमय को कॉल करने लगी। 

"जिस व्यक्ति से आप बात करना चाहते हैं उनका फ़ोन अभी स्विच ऑफ है कृपया….!" हर बार की तरह फिर उसे यही आवाज सुनाई दी, इस आवाज को सुन सुनकर आज वह बुरी तरह बोर हो चुकी थी, उसके चेहरे पर झुंझलाहट साफ दिखाई दे रही थी।


"निमय जी….!" उसका मन गुस्से से चिल्लाने का हुआ पर उसने खुद को शांत रखने की कोशिश की और फिर से कॉल करने लगी, फिर उसे वही रिस्पॉन्स आया, अब फरी के सब्र का बांध टूटने लगा था।


"क्या हुआ बिट्टू…?" फरी को अपने पीछे बाबा की आवाज सुनाई दी।

"कुछ नहीं बाबा!" फरी ने खुद की परेशानी छिपाते हुए कहा।

"मैं आपको बचपन से जानता हूँ बिट्टू, गुस्सा तो आपके आसपास भी नहीं भटकता.. फिर वो आपके चेहरे पर कैसे…!" बाबा ने मुस्कुराते हुए बड़े प्यार से कहा।

"क्या बाबा आप भी ना..!" फरी चिढ़ती हुई बोली।

"हां तो भला आप पर ये उतरा हुआ चेहरा अच्छा लगता ही नहीं…!" बाबा ने पास आकर उसके गालो को सहलाते हुए कहा।

"ठीक है ना! अब तो चढ़ा लिया न मैंने..!" फरी उनके गालों को खिंचते हुए बोली, फिर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। 

रजनी को फरी ने आते ही बता दिया था कि वो बस अपने बाबा को लेने गयी थी, और उसने बिना पूछे जाने के लिए सॉरी भी बोला। रजनी ने बाबा के लिए एक अलग रूम भी तैयार करवा दिया था, जो कि फरी के कमरे के पास ही था। इस वक़्त रजनी नीचे बैठी टीवी देख रही थी, विक्रम और वैष्णव रोज की तरह अपने पापा के साथ ऑफिस चले गए थे। 

थोड़ी देर में हँसते खिलखिलाते दोनो लोग नीचे आये। फरी दौड़कर टीवी वाले हॉल में गयी और सीधे रजनी के गले लग गयी। रजनी ने भी उसे बड़े प्यार से थपकियां देते हुए अपने पास बिठाया। उसके बाद फरी अपने बाबा का हाथ पकड़कर हॉल में ले गयी और बिठाकर टीवी दिखाने लगी।

थोड़ी ही देर में सिद्धार्थ हॉल में घुसे, वह अपने घर में एक अपरिचित व्यक्ति को देखकर हैरान थे। उनकी निगाहें काफी देर तक बाबा को टटोलती रहीं, अचानक ही उनके चेहरे पर मुस्कान फैल गयी।

"सुखविंदर जी आप?" सिद्धार्थ ने बड़ी हैरानी से पूछा, "आप यहां कैसे आये?"

"क्या आप इन्हें जानते हैं?" फरी और रजनी दोनो बेहद हैरान हुई। उनकी निगाहें अब सिद्धार्थ पर टिकी हुई थी।

"हाँ! ये तुम्हारे नाना के बहुत खास आदमी थे!" सिद्धार्थ ने मुस्कुराते हुए फरी से कहा।

"क्या मतलब? मुझे मेरे पिताजी के सभी विश्वासपात्रों के बारे में पता था, उनमें से हर किसी को मैं अच्छे से जानती हूँ।" रजनी ने आंखे बड़ी कर सिद्धार्थ से पूछा।

"मेरे बारे में साहब के अलावा किसी को पता नहीं था। मुझे साहब ने तब बुलाया था जब करुणा बिटिया घर से गायब हो गयी थी। दरअसल मैंने ही उन्हें ढूंढा था पर ना जाने क्यों उन्होंने मुझे सबसे छिपाकर रखा। भले मैं उन्हें साहब बोलता था पर उन्होंने हमेशा मुझे दोस्त की तरह समझा, मैं उनका विश्वास नहीं तोड़ सकता था। उसी समय मैं एक दो बार सिद्धार्थ जी से मिला, साहब ने इनसे भी मेरे बारे में किसी से कुछ बताने को मना कर दिया था। जब करुणा वहां आने वाली थी उसी रात साहब ने मुझे बुलाया और कहा कि मेरी बेटी का ख्याल रखना। ऐसा लग रहा था मानो उन्होंने तय भविष्य देख लिया हो, मैं उन्हें चाहकर भी नहीं समझा सकता था, इसलिए मैंने उनकी बात बिना किसी शर्त के मान ली, मैंने उन्हें वचन दिया कि मैं करुणा बिटिया को कुछ नहीं होने दूंगा पर मैं सफल नहीं हो पाया, उसके बाद मेरी ज़िंदगी का एक ही लक्ष्य शेष रहा, फरी बिटिया को उस लालची इंसान के साये से दूर रख अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाना।" बाबा ने लंबी साँस छोड़ते हुए कहा।

"यानी अब तक आप अपना काम कर रहे थे?" फरी का चेहरा उतरने लगा था।

"नहीं..! मैं बस अपना कर्तव्य निभा रहा था!" बाबा ने सिर झुकाए हुए कहा।

"तो फिर आप उसी समय फरी को लेकर यहां क्यों नहीं आये?" रजनी ने पूछा।

"क्योंकि मुझे नहीं लगा था कि उस वक़्त यहां आना सही होगा, और मुझे तो यहां का पता भी नहीं था। साहब के अलावा मैं यहां किसी को नहीं जानता था। और उस वक़्त मैं अगर ऐसा करता तो मुझपर अपहरण के इल्ज़ाम लग जाते या फिर कुछ ऐसा हो जाता जिससे मैं अपने कर्तव्यों से दूर हो जाता, और ऐसा मैं किसी कीमत पर नहीं होने दे सकता था।" बाबा ने अंतिम शब्दों पर जोर देते हुए कहा।

"चलो अब तो यहां आ गए न..! बाकी की बातें छोड़ो फिर अब..!" सिद्धार्थ अपनी टाई खोलते हुए बोले। "तो फिलहाल आप कहीं काम नहीं कर रहे? अब से आप मेरे यहाँ काम करेंगे…!" सिद्धार्थ ने बाबा की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा, प्रत्युत्तर में बाबा ने भी हँस दिया। उनके साथ ही फरी की हंसी भी निकल गयी।


◆◆◆

शाम को…!


अब दिन पूरी तरह से ढल चुका था, फरी अपने बाबा के साथ छत पर टहल रही थी। 


"बाबा मुझे आपसे कुछ कहना है।" सहसा वह बाबा की ओर घूमी और बोली।

"ठीक है कहो न..!" बाबा ने उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करते हुए कहा। फरी अब सोच में डूब गई कि वह अपनी बात को कैसे कहे…!


क्रमशः….!


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12 Comments

Arshi khan

03-Mar-2022 03:50 PM

Bahut khoob

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Inayat

03-Mar-2022 01:57 PM

बहुत खूब

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Marium

01-Mar-2022 04:19 PM

👌👌👌👌

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Thanks

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